News Agency : निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक संस्था है और इसलिए उससे यह उम्मीद करना उचित है कि वह सिर्फ न्याय करेगा ही नहीं, बल्कि न्याय करता दिखेगा भी। लेकिन इस चुनाव में वह जिस तरह की कार्रवाई कर रहा है, उससे लगता यही है कि वह बड़े पदों पर बैठे कुछ लोगों से डरा-सहमा सा है। इससे चुनावों की निष्पक्षता पर सवाल उठना लाजमी है।
लोकसभा चुनाव के प्रचार में अनुचित भाषा के प्रयोग पर चुनाव आयोग ने बीएसपी अध्यक्ष मायावती, एसपी के पूर्व मंत्री आजम खान, पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के चुनाव प्रचार करने पर कुछ समय का प्रतिबंध तो जरूर लगा दिया। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह इन सभी से कहीं ज्यादा उत्तेजक बयान दे रहे हैं, इसके बावजूद आयोग जिस तरह आंखें मूंदे है, उससे साफ लगता है कि उसकी निष्पक्षता पर उठ रहे सवालों में दम है।
ऐसे में, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी की यह बात सही लगती है कि “चुनाव आयोग का पैमाना सभी दलों के लिए एक समान होना चाहिए। जो लोग भी नियम तोड़ रहे हैं, उन पर एक-सी कार्रवाई होनी चाहिए। चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, उसकी निष्पक्षता संदेह से परे होनी चाहिए। अगर चुनाव आयोग जल्द ही अपनी जवाबदेही तय नहीं करता है तो उसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठेंगे।”
और ये सवाल ऐसे ही नहीं उठ रहे। प्रधानमंत्री मोदी 23 अप्रैल को जब अहमदाबाद में वोट करने गए, तो उन्होंने बाद में रोड-शो और भाषण तक कर लिया जबकि ऐसा करना निर्वाचन आयोग के नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है। इसे टीवी चैनलों पर भी दिखाया गया। कांग्रेस ने इस बारे में आपत्ति जताते हुए चुनाव आयोग से शिकायत भी की। इसमें कहा गया कि मोदी ने 2014 के लोकसभा और 2017 में हुए गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान भी ऐसा ही किया था। इसी आधार पर कांग्रेस ने मोदी को आदतन नियमों का उल्लंघन करने वाला करार दिया है।
लेकिन आयोग ने इतने गंभीर मामले में भी मोदी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। मोदी नियमों को लगातार धता बता रहे हैं। इससे पहले 1 अप्रैल को उन्होंने महाराष्ट्र के वर्धा में चुनावी रैली में भी दो बातें कहीं। एक- उस पार्टी (कांग्रेस) के नेता अब बहुसंख्यक (हिंदू) आबादी वाली सीटों से चुनाव लड़ने से डर रहे हैं; और दो- “कांग्रेस ने ‘हिंदू आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग कर देश के करोड़ों लोगों को कलंकित करने का प्रयास किया। आप बताएं, क्या आपको दुख नहीं हुआ था, जब आपने हिंदू आतंकवाद शब्द सुना था? हजारों साल के इतिहास में क्या एक भी उदाहरण है जहां हिंदू आतंकवाद में शामिल रहे हों?”
ऐसे में, यह सवाल उठना उचित है कि अगर मुसलमानों को एक होने की सलाह देने पर मायावती के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है, तो मोदी के इस तरह के बयान तो उससे कहीं ज्यादा तेजाबी हैं। यह जनता को धार्मिक भावनाओं के आधार पर बांटने की सीधी-सीधी कोशिश है।
आचार संहिता लगने के बाद भी प्रधानमंत्री मोदी ने अंतरिक्ष में अपने एक उपग्रह को मार गिराने के कार्यक्रम के लिए राष्ट्र के नाम संदेश दिया, जिसे सभी टीवी चैनलों ने लाइव प्रसारित किया। यह संदेश भी किसी चुनावी भाषण की तरह ही था। बस, इसमें उन्होंने बीजेपी को वोट देने की अपील भर नहीं की थी। लेकिन चुनाव आयोग न सिर्फ खामोश रहा बल्कि विपक्ष की शिकायतों पर उसने प्रधानमंत्री को क्लीन चिट दे दी।
हालात यहां तक पहुंच गए कि 16 अप्रैल को ओडिशा के संबलपुर में जब चुनाव आयोग के एक पर्यवेक्षक ने प्रधानमंत्री के हेलिकॉप्टर की जांच करने की कोशिश की, तो आयोग ने उसे ही निलंबित कर दिया जबकि कांग्रेस ने फोटो और वीडियो जारी करते हुए आयोग से एक शिकायत की थी कि कर्नाटक पहुंचने पर प्रधानमंत्री के हेलिकॉप्टर से एक बक्सा निकालकर हड़बड़ी में निजी कार में डालकर कहीं ले जाया गया।
कांग्रेस पार्टी का कहना था कि इस बात की जांच होनी चाहिए कि प्रधानमंत्री के हेलिकॉप्टर से ले जाए गए इस बैग में क्या था और यह क्यों एक निजी कार में लादा गया? इसमें लोगों को बांटने के लिए पैसे तो नहीं थे?
इतना ही नहीं, चुनाव प्रक्रिया के आरंभ में ही आयोग ने स्पष्ट कर दिया था कि सेना से जुड़े हुए किसी भी व्यक्ति, पद या कारवाई का जिक्र चुनावी भाषणों में नहीं किया जाएगा। उसके बाद भी मोदी पुलवामा के शहीदों के नाम पर पहली बार वोट करने की अपील कर रहे थे, तब भी चुनाव आयोग चुप रहा। जब मोदी ने विंग कमांडर अभिनंदन की पाकिस्तान में गिरफ्तारी को कत्ल की रात करार दिया, तब भी आयोग ने कुछ नहीं किया। अप्रैल के तीसरे हफ्ते आते-आते मोदी ने परमाणु हथियारों के उपयोग की धमकी भी दे दी। फिर भी, चुनाव आयोग चुप ही रहा।
जाहिर है, इनकी ओर निगाहें उठाकर देखना भी आयोग को गवारा नहीं है। वैसे भी, आयोग ने कुछ नेताओं पर कार्रवाई तब जाकर की, जब सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से उसे लताड़ लगाई। सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग की दलील थी कि उसके पास आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कोई कदम उठाने की ताकत ही नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी के बाद उसने चार लोगों- मायावती, योगी आदित्यनाथ, आजम खान और मेनका गांधी पर अलग-अलग अवधि के लिए भाषण देने पर प्रतिबंध लगा दिया।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने तंज भी कसा और कहा कि अच्छा है, कम-से-कम हमारे याद दिलाने पर ही सही, चुनाव आयोग को अपनी ताकत का भान तो हुआ। तब ही तो, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने भी 19 अप्रैल को इंदौर में सार्वजनिक तौर पर व्यंग्य किया कि आयोग के पास पर्याप्त शक्तियां हैं और वह ईश्वर से यह नहीं बोल सकता कि ‘हे प्रभु, मुझे शक्ति दे दो’।
खुद सुप्रीम कोर्ट ने एमएस गिल मामले में कहा हुआ है कि जिस विषय पर संसद ने कानून नहीं बनाया है, उसमें चुनावों के दौरान आयोग जो फैसला लेगा, वही कानून है। वैसे, मसला सिर्फ बयानों का ही नहीं है। चुनाव प्रक्रिया के दौरान कुछ राजनीतिक हस्तियों पर आयकर के छापे डाले गए। शिकायत किए जाने पर आयोग ने छापों पर संज्ञान लेते हुए केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) को निर्देश दिए कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान किसी भी छापे से पहले इनकम टैक्स विभाग को सूचना देनी होगी ताकि लेवल प्लेइंग फील्ड सुनिश्चित की जा सके।
इसके बावजूद डीएमके नेता कनिमोझी के घर पर छापे डाले गए। यह बात और है कि उसमें मिला कुछ भी नहीं। सीबीडीटी को यह स्पष्ट करना बाकी है कि कनिमोझी के घर छापे से पूर्व क्या उसने चुनाव आयोग को इसकी सूचना दी थी? हालांकि, इस दौरान पूरे देश में कई जगहों पर छापेमारी कर सैकड़ों करोड़ रुपये पकड़े गए। मजे की बात है कि इस दौरान किसी बीजेपी या उसके सहयोगी दल के एक भी नेता के ठिकानों पर कोई छापा नहीं मारा गया। जबकि इस चुनाव में भी प्रचार पर सबसे ज्यादा खर्च बीजेपी नेता ही कर रहे हैं क्योंकि इसी पार्टी के पास सबसे अधिक पैसे भी तो हैं!